Saturday, June 21, 2008

सिलसिला...

माचिस कि तीली से थोड़ी सी नींद उधार लेता हूँ
और सिगरेट के मुहाने पर अपना वजूद रख देता हूँ!!!

ज़िन्दगी के ख्वाब कश-ब-कश जीता हूँ
और यूँ तुम्हे रग-रग में उतार लेता हूँ...!!!

मदहोशी सा कुछ जब छाने लगता है आँखों में
आईने में देख तुम्हे मुस्कुरा लेता हूँ !!!

गुबार सा जब निकलता है धुआं
(गुस्से में जो तुम प्यार से झिड़क देती हो)
फलसफे कुछ दीवानगी के गुनगुना लेता हूँ...!!!

और कुछ भी नहीं जब कटता तुम्हारे बिना...
सिलसिले में सिलसिला नया फिर एक गढ़ लेता हूँ !!!

माचिस कि तीली से थोड़ी सी नींद उधर लेता हूँ
और सिगरेट के मुहाने पर अपना वजूद रख देता हूँ!!!

ये नज़्म ९६ में लिखी थी, अब बाँट रहा हूँ..जैसा भी लगे प्रतिक्रियाएं जरूर जानना चाहूँगा.दैनिक भास्कर के जून ९९ के किसी रस रंग में ये रचना प्रकाशित हुई थी..

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