Monday, June 30, 2008

खुश आमदीद

कुछ हर्फों
और कुछ लफ्जों से
मैंने बुना था एक ताना बाना !!
और ज़ज्बातों की रौ में,
लिखा था एक फ़साना !!
मेरे अक्स का एक नशा है -
जो तेरे बदन का बोसा है !!
खुश आमदीद है तेरा....
मेरे इस ताने बाने में -
सबसे पहला तेरा आगाज़ हुआ...
तेरी झुकी पलकों में॥
अपने अक्स के नशे का एहसास हुआ ...!!!

बरसात

लघ्जिशों की तमन्ना है ये...
ख़यालों की बरसात
सम्हल कर रहना हमदम मेरे
कभी कभी ये बरसात
मुखौटों के रंग फीकें कर देते हैं..

आग

ये मैं बह जाता हूँ ज़ज्बातों में,
या तेरे ख़याल तर कर जाते हैं मुझको॥
कुछ तो है इस कमबख्त आग में...
जो तुझे भी जलाती है...
और मुझे भी जला रही है मुसलसल..

विस्तार

जड़ें गहरी होती जाती हैं...
जितने ही तुम करीब आते हो !!
मुझमे समा कर मुझे,
आसमान का विस्तार दे दो...!!!

सफर

कुछ नहीं रक्खा है
यूँ खामोशी से गुजर जाने में
यादें भी खो जाती हैं
रफ़्ता रफ्ता गुजर जाने में
अश्कों से नहीं धुलती
किताब-ए-माजी के लघ्जिश
कुछ दोस्तों के दामन साथ हों
उंगलियों में सिमट आती हैं वक्त,
जिन्दगी और याद ये सफर
फिर - पलों में गुजर ही जाती है... !!

Saturday, June 21, 2008

वस्ल-ए यार

मैं नहीं करता
अल्फाजों की जुगाली
और ना ही है मेरे पास
ख़्वाबों के चटकते रंग
मुझे तो आसमाँ में दिखते हैं -
अपनी पहुँच से दूर सितारे और चाँद
बचपन कि तरह...!!

मैं नहीं पढ़ता ज्ञान की
बड़ी बड़ी पोथी
और ना ही है मेरे पास
दुनियादारी की बहकती दलीलें
इस ज़मीं में मुझे तो दिखते हैं -
झूठे रिश्तों सी अनगिनत राहें
और राहगुजर रोज़ की तरह.....!!!

मैं नहीं जाता कभी
दिल से बड़ी किसी महफिल में
और ना ही है मेरे पास
किसी हुनर का अंजाम।
मुझे तो यहाँ मिलते हैं -
लोग खुद में खोये हुए
मुस्कुराते पुतलों की तरह....!!!

मैं तो बस करता हूँ बस
कुछ छोटे छोटे से काम
और गा लेता हूँ साथ
उनके उनके सुर का कलाम
मुझे तो यूँ मिलते हैं -
खुदाया राम रहीम खेलते हुए बच्चों की तरह....!!!

मैं नहीं लाया देखो
किन्ही दावों का पैगाम
और ना ही हूँ मैं कोई
अलग बिरला इंसान।
मुझे तो तुम दिखती हो -
मेरी उम्र के मानिंद
गुजरेगी अब जो इबादत कि तरह....!!!!

१० दिसम्बर २००७, १२३० रात्रि

कस्तूरी


ढूँढत रहा जग माही
खुशबू जो बिखरे चहुँ ओर
ज्यों कस्तूरी नाभि बसे
बैरन रहा उस ओर....

जब बारे इस मिट्टी को
तब जाने मोल तुम्हारी ....

सिगरेट


पोरों से फिसल गया जलता हुआ सिगरेट
कांपती उँगलियों से छूट गिर गया जाम !
आँधियों के मौसम में जला लिए चिराग,
झोंका हुआ रुखसत, ले गया मेरा नाम...!!!

सिलसिला...

माचिस कि तीली से थोड़ी सी नींद उधार लेता हूँ
और सिगरेट के मुहाने पर अपना वजूद रख देता हूँ!!!

ज़िन्दगी के ख्वाब कश-ब-कश जीता हूँ
और यूँ तुम्हे रग-रग में उतार लेता हूँ...!!!

मदहोशी सा कुछ जब छाने लगता है आँखों में
आईने में देख तुम्हे मुस्कुरा लेता हूँ !!!

गुबार सा जब निकलता है धुआं
(गुस्से में जो तुम प्यार से झिड़क देती हो)
फलसफे कुछ दीवानगी के गुनगुना लेता हूँ...!!!

और कुछ भी नहीं जब कटता तुम्हारे बिना...
सिलसिले में सिलसिला नया फिर एक गढ़ लेता हूँ !!!

माचिस कि तीली से थोड़ी सी नींद उधर लेता हूँ
और सिगरेट के मुहाने पर अपना वजूद रख देता हूँ!!!

ये नज़्म ९६ में लिखी थी, अब बाँट रहा हूँ..जैसा भी लगे प्रतिक्रियाएं जरूर जानना चाहूँगा.दैनिक भास्कर के जून ९९ के किसी रस रंग में ये रचना प्रकाशित हुई थी..

जुगलबंदी

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हर एक बूँद से बढ़ती है सिहरन मेरे बदन की


पूछो बारिश की इन बूंदों को मज़ा आता क्या है...???


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थोड़ी और पिला साकी के मैं होश में हूँ अभी


जिद ना कर जानने की तुझसे मेरा नाता क्या है ??


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जला ही दूंगा आशियाँ मेरा जो तुम न रही,


एक मकाँ के सिवा मेरा जाता क्या है...??।


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पूछूंगा मैं भी खुदा से एक दिन जरूर ।


यूँ रह रह कर, गैरत मेरी जगाता क्या है ??


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हैराँ न हो यूँ, देख अक्स अपना आईने में.....


ये मेरी नज़र है, और नज़र आता क्या है ??


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....इत्माम....

ख़्वाब-ए-रुखसार तेरा
एक सिलसिला बन गया है !
परेशां हो उठ जाता हूँ
कमबख्त तेरी जुल्फें बेहया हैं !!!

ये खिदमत-ए-अकीदत है
जो तुम से ज़ुदा कर गया है !
गौर से देखो आइना -
मेरा अक्स तुमसे अभी मिल कर गया है॥!!

तेरे पास आबाद तन्हाई
मुझ तक पसर गया है !
तुम कहते हो रात तो
अभी बड़े फज़र ही गया है !!

तेरी आँखों का सूनापन
मुझ में उतर गया है !
अपने कांधों से उतार अमानत
देखो चाँद कितना नया है !!

तेरी उँगलियों के चुने तिनके
किसके घर बिखर गया है !(ग़म न कर...)
तेरी तासीर से ही तो
मेरा आशियाँ निखर गया है !!

तेरी पलकों के ख़्वाब
मेरी ज़िन्दगी से बयाँ है !
आगोश से मेरी देखो
मेरे साथ ये सहर नया है !!

तुझे चूम कर देख
वो झोंका सिहर गया है !
गुजरा मेरे पास से
तो तेरी खुशबु बिखेर गया है !!

इक लम्हा जो तुझे
छू कर गुजर गया है !
मेरी उम्र में मुझे
तुझ से लबरेज़ कर गया है !!

कहने को जुदा हैं (तन्हा हैं)
ये फासिला क्या नया है ??
तन्हाई, खुशबू, चाँद, ख़्वाब ...
दरमियाँ हमारे यही तो हमनवां है...!!!

December 17th , 2007. California

सत्य

सूखे वृक्ष की
सबसे ऊंची टहनी पे बैठा
एक खग
शांत।
निहारता नभ कि विराटता
और पंख खोल
उड़ जाता नापने
सीमायें लाँघ सुन आता
अंतरिक्ष का सत्य...
वापस
उसी वृक्ष की ऊंची टहनी पे बैठ
फिर देखता नभ की ओर
अबाध्य गति से -
निरंतर चलता समय
अंतरिक्ष,
नभ और खग के सत्य का साक्षी है।
परन्तु मौन है...!!
अंतरिक्ष मौन है।
नभ मौन है॥ समय मौन है...
सत्य मौन है....
समय ही
सत्य को व्यक्त करने में
पूर्ण सक्षम है...
मुझे मौन बनना है...!!!

३१ दिसम्बर २००७, प्रातः ५.००, कैलिफोर्निया

स्पर्श - १

लहरों का उठना,
नाव का डगमगाना,
पतवार का छूटना,
कुछ भी नहीं होता -
पूर्वनियोजित ।
फिर भी मन सोचता है,
स्पर्श से पहले -
मन बहुत सोचता है...!!!!

1215pm Jan 01,2008. California

मन (स्पर्श -२)

विवेक को हराना,
दलीलों को ठुकराना,
ज़ज्बातों को बहकाना,
सब कुछ समझता है मन...
फिर भी -
बहकता है मन
कोई खूबसूरत गुनाह
करने को मचलता है मन
और फिर -
ये तसल्ली भी देता है मन -
सब कुछ पूर्वनियोजित था -
मेरी किस्मत में यही लिखा था !!!

साथ

दीपक की ज्योति,
भली-भांति होती है भिज्ञ,
अपने क्षणिक जीवन से!!
किन्तु,
फिर भी -
जब तक जीती है -
अंधेरों के विरुद्ध
लड़ती हुयी जीती है !!
मैं भी होना चाहता हूँ -
वही ज्योति,
क्या तुम मेरा साथ दोगे -
तेल और बाती बन
सिर्फ सुबह होने तक।

1135 pm 2nd Jan 2008 California

Friday, June 20, 2008

....काबिल-ए-यकीं....

मेरा यकीं मेरे सच के सिवा कुछ नहीं..
तेरा यकीं मेरे इश्क के सिवा कुछ नहीं..!!!


वो मुखौटा जिसने दम तोड़ा मुझ में था
वो एक झूठ के सिवा कुछ नहीं..!!


मैं तो उठ चुका था गम-ए-दुनिया से लेकिन,
मेरी साँसे तेरी धड़कन के सिवा कुछ नहीं..!!


तेरे यकीं से फाजिल है जो उम्र-ए-खिज्र,
अब मुसलसल इबादत के सिवा कुछ नहीं...!!!


1200 Hrs 3rd jan 2008 Cal

रिश्ता



ये क्या कह रहे हो

के बज्म-ए-जहाँ में,

हकीकत में कोई

होता नहीं किसी का...

जहाँ में ये रिश्ता -

हमारा तुम्हारा,

हकीकत नहीं

तो फिर और क्या है..???

नहीं कहा था मैंने तुम्हे...???

उम्र के फासलों से मेरे तज़ुर्बात कम हैं..
छोड़ो तुम्हारी अपनी खाम खयाली में हम हैं..!!
वादों इरादों जुबां की कीमत नहीं है मेरे लिए..
हर नासूर का अल्फाज़ बस वक्ती मरहम है..!!
कहा ना - यूँ ऐतबार न कर मुताल्लिक़-ए-वफ़ा..
किसी भी रिश्ते में बंध जाऊं, तेरा वहम है..!!
मयखानों की तहजीब हम से है..
मुकम्मल चर्चा ये आम अब तो सर-ए-बज्म है..!!!
तमाम तोहमतों का तेरे सेहरा बनाऊंगा..
मुस्कुराता नज़र न आऊं तेरा भरम है..!!
छोड़ दिया है सब अब तेरे उस खुदा के हाथ
ज़र्द पत्तों पे बिखरी जिन्दगी मेरी शबनम है...!!
नही कहा था मैंने तुम्हे -ये सब खुदकुशी से पहले...!!!
21 January 2008; 2355 Hrs California

'रिश्ते'

यादों के मकाँ में
सर्द हवाएं ठहरी हुयी हैं.
दर-ओ-दीवार पे कुछ
खूबसूरत लम्हे चंस्पा हैं..
पूरे 'घर' में -
पुराना मौसम महक रहा है...
कुछ खिलखिलाती आवाजें
छत से चिपकी हुयी
टुकुर-टुकुर ताक रही हैं...
मेरे इस मकाँ में -
एक कोने से दुसरे कोने
भटकते देख रहा हूँ -
'रिश्ते' को -
तलाश में दो अदद इंसान की...!!!!

Feb 10, 2008, 1.00 am Indore India

अंगार

राख़ के ढेर में दबे
शोलों को ने छेड़ों तुम,
समा की एक बूँद ही
काफी होगी उनके वास्ते !
छेड़ना चाहते हो तो
छेड़ो वक्त कि आंधी को,
जो बनाती है अंगार -
बुझते हुए शोलों को...!!!!