Friday, December 26, 2008

मौसी (2)

कहते हैं इनकी दुआओं में, और बद्दुआओं में भी, बड़ी ताकत होती है. पर मेरी उलझन को तो ट्रेन में मिली माधुरी, शिल्पा ने अपनी प्रमाणिकता साबित करने की जिद में और बढा दिया. थोड़ी बहस और गरमा-गर्मी में इक्कीस रुपये में मैंने टाला उन्हें. बहुत देर तक तृप्ति और मैं इस बारे में बात करते रहे फिर..

ये आज के हालात हैं या इनका इम्प्रेशन - इनसे दूर ही रहना चाहते हैं लोग. दुआ-बद्दुआ की बात तो बहुत दूर की है - ये भी शायद हमसे दूर ही अपने आप में खुश ही हैं. माली ज़रूरतें हम तक खींच लाती है और अपने अधिकारों की खानापूर्ति कर लेते हैं ये. कितना यांत्रिक हो गया है सब कुछ. दोनों की दुनिया अपने आप में पूरी है....पर कहीं कुछ तो है - जो दोनों को जोड़ता है..साफ़ साफ़ दिखाई नहीं दे रहा - शायद यही मेरी उलझन का कारण है.

नए मकान में लगभग ३ महीने गुजरने को थे. अक्सर टूर में रहने की वजह से मौसी से रूबरू मुलाकात का कोई मौका हाथ नही आया. सितम्बर में जब मैं दिल्ली से वापस लौटा तो पता चला नानाजी की तबियत कुछ खराब है और वो पास के अस्पताल में भर्ती हैं. तृप्ति से अक्सर नानाजी खूब बतियाते थे. मैं जब भी कहीं टूर पर होता, मुझे पीछे तृप्ति के अकेले होने की चिंता कभी नहीं हुयी. अक्सर मेरे लौटने पर कहा करती, " पता है मुन्ना, तुम्हारे जाने के बाद नाना-नानी इतना ख़याल रखते हैं कि कभी लगा ही नहीं माँ-बापी से दूर रह रही हूँ. और बस नानी ने ये कहा, नाना ने ये बांटा...मैं बस ध्यान से सुनता और उनका कृतज्ञ होता जाता.

अस्पताल जाने से पहले नानाजी ने - उस समय मैं दफ्तर में था - तृप्ति से कहा था, "बस कुछ पैरों में दर्द सा है..दो घंटों में लौट आऊंगा." और फिर नानाजी जो दो घंटों के लिए अस्पताल क्या गए लौट कर फिर कभी नहीं आये.

हफ्ते भर में सबकुछ बदल गया. मातमपुर्सी को सारे लोग आये. घर में खूब चहल-पहल तो हो गयी लेकिन चेहरा सब का उदास सा रहता. बड़े धैर्य और हिम्मत से तृप्ति को सारे काम करते हुए देख आश्चर्य मिश्रित गर्व भी महसूस कर रहा था...सब कुछ सम्हालते, लोगों को चुप कराते, आठ दिन बाद तृप्ति मेरी बाहों में फूट पड़ी. मैंने उसे रोने दिया. नानी जिन्होंने इतने पर भी एक कप्तान की तरह - नानाजी के दुःख के साथ - घर के बागडोर को सम्हाला था, रोते रोते तृप्ति को भी सम्हालती.

पंद्रह दिनों में सबकुछ सामान्य सा हो गया था, फिर भी पूरे घर में यूँ लगता जैसे सिर्फ खामोशी ही इधर से उधर फिरा करती है. गिने चुने एक दो मेहमान ही रह गए थे. सभी घर के माहौल को यथासंभव अपने हलके-फुल्के चुटकुलों, ठहाकों एवं नानाजी की कुछ चुटीली यादों के सहारे सामान्य बनाने की कोशिश में लगे रहते.

रोज़ की तरह मैं दफ्तर जाने की तैय्यारी में था. अचानक फिर से रोने के स्वर ने मुझे चौंका दिया. किसी अनिष्ट की आशंका के भय में दौड़कर हम नानीजी की बैठक में पहुंचे तो देखा मौसी, नानी को पकडे बुक्का फाड़े रो रही थी. दरअसल इस मकान में नानाजी पिछले ३५ वर्षों से रह रहे थे. अपने आस-पास के ज़रूरतमंद सारे लोगों को आत्मनिर्भर बनाने में नानाजी ने खूब सहायता की थी. मुसीबत के दिनों में मौसी को भी नानाजी का सहयोग मिला था. मौसी का रोना और नानी के आंसूं देख कर पूरे घर का माहौल एकबारगी फिर ग़मगीन हो गया. पर फिर जल्दी ही मौसी ने अपने आपको सम्हाला, नानी को चुप कराया. और कहा, "वो तो गए, पर पीछे देख, तुझे अकेला नहीं छोड़ा है, इस घर के हर कोने में अपनी खुशबू छोड़ी है. उनकी एक तस्वीर तो हमारे सीने में भी है. रोना मत..बस ये सोचना तेरे लिए एक नया घर बनाना था न ऊपर, अकेले गए जल्दी..जब घर बन जायेगा न फिर तुझे बुला लेंगे. बस इतना धीरज धर उसे आराम से घर बनाने दे...!!!"

घर के तिनके को जोड़ने का दर्द मौसी की आँखों में उभर आया...और फिर मौसी चुपचाप फिर आने का कह कर निकल गयी..मैं उन्हें ओझल होते तक जाता देखता रहा...!!!

No comments:

Post a Comment