Saturday, December 6, 2008

अब मेरे बस की बात नहीं...!!!

एक घर में
दो ही केवल -
दो ही मनुष्य रहते
एक खेलता -
छिप कर सपने -
एक जल कर झरता,
एक हँसता
तारों के अधरों से
फूलों कि गंध ले कर
एक रोता
धरती की छाती पर
कूलों को बंधन मान कर,
एक आता -
प्रिय के रूप में -
झिझकता सकुचाता सा
दूसरा रहता
रुद्ध गेह में -
शून्य शयन पर पड़ा हुआ सा
एक मुक्त
शिशु के प्राणों में -
नाचता आकाश भर कर
दूसरा तल्लीन -
निज कर्मों में
मरता जल-भुन कर
एक स्तब्ध
गिरी गुफा
सरिता सागर पार कर,
एक क्षुब्ध
घूम फिर कर -
नहीं पाता कहीं पहचान
एक निरंतर धावित
बहु वेशों में -
ध्वंस-सृजन के ताल ताल में,
दूसरा मरता
देश देश में -
क्षण-क्षण में काल काल में
इन दो मनुष्यों के जीवन
में कैसे भी करना है समन्वय -
एक साथ क्यूंकि -
दो दो जीवन जीना
अब मेरे बस की बात नहीं...!!!

December 5th 2008, 1.45 pm, California

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