I wrote this "sansmaran" around seven years back - year 2001. I happen to find the actual notes in my bunch of old books and cards. I am trying to put it exactly the way I wrote it then..no changes in langauage and anything. I am thankful to Tapati for editing and suggesting the changes in this creation.
अचानक ही सवेरे-सवेरे बाहर कुछ मर्दाने स्वरों में बलाईयों के स्वर गूंजने लगे. नींद भी ढंग से पूरी नही हुयी थी और सवेरे की अलसाहट अपने पूरे रंग में थी. मैं खासा झुंझला गया. जीतू ने दरवाज़ा खोला, सामने दस-बारह किन्नर खड़े थे. जीतू मेरे अभिन्न मित्रों में से एक है...भिवानी से अभी अभी अंजू को ब्याह कर लाया है. ये किन्नर भी पता नहीं नयी शादियों को कहाँ से सूंघ लेते हैं ? बलाईयों का स्वर मद्धिम नहीं हुआ. नेग के भाव सुनकर जीतू का दिमाग खराब हो गया, भाव-ताव होने लगा. इक्कीस-सौ से बात पांच सौ एक रुपये पर तय हुयी. अंजू बाहर नही आयी. वे दुआएं, आशीर्वाद देते हुए चले गए. बाद में जीतू ने चाय की चुस्कियों के साथ कहा, "यार, इनकी जिन्दगी भी क्या है ? आज मुझसे एक गलती हो गयी, मैं इनका अनादर नही करता - पर इन्हें कम से कम चाय तो पिला ही सकता था." सच है - नौकरीपेशा, निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में इक्कीस सौ रुपये का नेग देने का सामर्थ्य तो नही था, कम से कम चाय की इज्ज़त तो ज़रूर दे सकता था जीतू. मैं सोचने लगा था - हर जगह मनोरंजन का साधन बनते ये लोग, क्या कहीं भावुक होकर टूटते हैं या इनका पर्दा इनके भी भीतर होता है ???
अक्सर रेल यात्राओं में जिनसे सामना होता है, ताली बजाते हुए वो पैसे लेते हैं - यदि किसी ने टालने की कोशिश की तो उनकी तो शामत ही आ जाती है. हरकत कोई छिछला नही होता, शर्मसार नज़रें हो जाती हैं - उनकी ज़ुबान से. कोई स्वस्थ धारणा नही थी मेरी उनके प्रति.
तृप्ति - ज़िंदगी में मेरी हमसफ़र - एक निर्भीक जुझारू महिला है. फिलहाल मनोविज्ञान में पी.एच.डी. कर रही है. कहती है, "तुम जानते हो, ये ऐसे क्यूँ हैं ? बचपन से ही जो धारणा तुमने इनके प्रति बना ली, ऐसी ही सभी की धारणाएं हैं. और सोचो - वही व्यवहार हर किसी से - ये बरसों से सहते सहते आक्रामक नही हों, तो इसमें आश्चर्य कैसा ? मैं भी सोचने लगता हूँ, शायद ये मूल रूप से ऐसे नहीं होते, इन्हें हम ही अपने व्यवहार से गढ़ते हैं. पता नहीं, पर जाने क्यूँ - मैं इतना सोच कर भी उनके प्रति अपना व्यवहार - रूखेपन और जल्दी से कुछ रुपये देकर, उन्हें टालने का - बदल नही पाता.
छः महीने पहले जब तृप्ति और मैं इस शहर में आए थे - तब मैंने किराए का मकान तय नहीं किया था. बस यही सोचा कि घर पर तो वही रहने वाली है, बेहतर यही होगा कि उसके साथ ही 'हम' अपनी पसंद का कोई मकान तलाश घर बनायेंगे. दो-तीन दिनों में ही साईंनाथ कालोनी में श्री. कीर्तिवार जी के घर का एक हिस्सा हमने किराये पर लिया. चूंकि गृहस्थी नयी थी और सामान - हमने तय किया था तिनका तिनका जोड़ कर बनायेंगे -तो कुछ ज्यादा नहीं था. दिन - दफ्तर से घर और घर से दफ्तर, और शाम का वक्त अपनी हंसी-ठिठोली और जिन्दगी के हसीन सपनें बुनने औए उन्हें हकीकत में बदलने की उहा-पोह में गुजरने लगी.
उस रोज़ शायद दसवां या ग्यारहवां दिन था उस घर में. सवेरे का वक्त था और मैं हमेशा की तरह चाय पीकर अखबार हज़म कर रहा था. दरवाज़ा खुला हुआ था. घर पर सभी कीर्तिवार जी को नाना कहते थे एवं उनकी पत्नी नानी कहलाती थी. अचानक मुझे एक मर्दाने स्वर ने टोका, " बाबू, नए आये हो क्या ?" पीछे नानी दिखाई पड़ीं. मेरे हामी भरने पर "मौसी" ने जिनकी उम्र तकरीबन पैंतालीस वर्ष होगी, कहा, "नयी शादी लगती है." इसकी हामी नानी जी ने भरी. मैंने "मौसी" को अन्दर बुलाया - पर वो दरवाज़े से अन्दर नही आयी, देहरी पर खड़े खड़े ही घर के दीवारों को टटोलने लगी. दीवार पर कुछ पेंटिंग लगे थे - जिनमे मैंने खूब प्यार उढेला हुआ था, फर्श पर दो गादी - एक के ऊपर एक बिछी हुयी थी और एक छोटा सा टेप-रिकॉर्डर था. तृप्ति अन्दर सुबह के धुँए की कसमसाहट में मेरे दोपहर का टिफिन तैयार कर रही थी. 'मौसी' कुछ देर पेंटिंग में डूबती-इतराती रही, "भैय्या, शादी तो तेरी नयी है, और नेग तेरी खुशी में जो बनता है - खुशी से दे दे." मैं आश्चर्यचकित था. उसे देखते ही मैंने सोचा था - गए, आज तो तीन-पांच सौ रुपये से निपटे और कहाँ ये मेरी खुशी में खुश होना चाह रही है...
चूंकि जीतू के घर के प्रकरण से उबर नहीं पाया था, एकाएक भरोसा नहीं हुआ. सबसे पहले तो मैं वैसे ही उसकी शालीनता से प्रभावित था, दुसरे या कहना कि अपनी खुशी से दो, कोई भाव नहीं, कुछ नहीं. उसने पेंटिंग (मैंने तृप्ति का एक बड़ा पोर्ट्रेट बनाया था) की भी तारीफ की थी, कहा था, "पता चल रहा है, बीवी से खूब प्यार करते हो." मैं शरमा गया था, जैसे चोरी पकड़ी गयी हो. मैंने पूछा उनसे, "मौसी, आप ही बताओ कितना दे दूं ?" वैसे सच कहा जाए तो उस समय मैं अधिक से अधिक एक सौ एक रुपये ही, अपना बजट गडबडाए बगैर निकाल सकता था, उस से ज्यादा नहीं. मौसी मरे घर में मेरी औकात ढूंढने लगी, और मैं उनके अक्स में उनकी खुशी. फिर कहा उन्होंने, " बेटा, तेरी जो इच्छा." "मौसी, आप एक बार बोलो तो.""दुआ की कोई कीमत नही होती रे, मेरे भैय्या, तू खुशी से ग्यारह रुपये भी दे दे तो मैं खुश हूँ." जो प्यार उन्होंने उढेला था अपनी आवाज़ में, इच्छा हुयी उन्हें बिठा कर खूब सारी बातें करूँ, और सचमुच करना भी चाहता था. वो इक्यावन रुपये लेकर दुआएं देती चली गयी. इस से पहले ऐसी किसी भी किन्नर से रूबरू नहीं हुआ था, कौतुहूलवश नानी से पूछने लगा उसके बारे में.
नानी ने बताया, ये पिछले पच्चीस सालों से लगातार आ रही है. और इसकी शालीनता से सभी प्रभावित हैं, हर घर में त्यौहारों एवं अन्य उत्सवों के अवसर पर जब ये जाती है तो हर कोई अपनी खुशी में इसे जरूर शामिल करता है. याद करते हुए नानी के माथे पर शिकन पड़ गयी पर उन्हें ये याद नहीं आया कि मौसी ने कभी किसी के साथ बदतमीजी की हो या किसी ने उनका मज़ाक उड़ाया हो.
स्थूल काया, सांवला रंग, माथे पर बड़ी सी बिंदी, ऊँची-पूरी और मोटी आवाज़ की शालीनता बरबस ध्यान खींच ही लेती. मुझे याद आ गया, जब तृप्ती और मैं बडोदरा से दिल्ली जा रहे थे, शायद रतलाम में या वहीँ कहीं कुछ चार-पांच के गुट में ये ट्रेन में चढ़े थे. पांच-दस रुपये बटोरते हुए ये आगे आते जा रहे थे. उनमे से एक जो सबसे ज्यादा बडबोली थी - मेरे पास आकर रुकी - एक नज़र तृप्ति को खूब देखा, फिर जैसे उसने हवा से सूंघ लिया या तृप्ति की आँखों में उमड़ते प्यार को पढ़ लिया, "अरे माधुरी, शिल्पा; यहाँ आओ रे, देखो मेरा सलमान खान तो शादी करके भाग रहा है, कुछ मेरा मुंह तो मीठा करा जा हीरो.."और इस से पहले मैं अपनी कुछ प्रतिक्रिया व्यक्त कर पाता उन्होंने अपनी मांग रख दी - "पांच सौ एक रुपईया निकाल !" और उसकी ज़ुबान तो इतनी खराब कि मैं बता ही नहीं सकता. हर एक वाक्य में कम से कम ५-६ गालियाँ. कहते हैं डॉक्टर और इंजिनियर - और उनमे से भी वो जो हॉस्टल में रहे हैं - बदमाशी, शरारतें और खालिस भाषा में हरामियत की हदों से सामना कर चुके होते हैं. मैं शर्त लगा कर कह सकता हूँ कि अपने इंजीनियरिंग हॉस्टल में भी मेरा ज्ञान इनकी शब्द-ज्ञान से कम ही था. बहरहाल, मेरे मना करने पर वो तो अपनी शलवार वहीँ खड़े खड़े खोल कर अपने किन्नर होने का प्रमाण प्रस्तुत करने पर तुल गयी. बाक़ी मुसाफिर बड़ी तन्मयता से इस प्रसंग पर रस लेने में लगे हुए थे. सवाल उसके किन्नर होने अथवा नहीं होने का नही था. सवाल था तरीके का. ये दुआओं का सौदा हसीन चांदनी की तरह सुखदायी भी तो हो सकता था, क्यूँ मुझे उसे देखने में भी तकलीफ होने लगी थी. उसका तरीका अभी भी फांस की तरह चुभा हुआ है स्मृति-पटल पर. और फिर आज इस प्रसंग में 'दुआ' का अस्तित्व कहीं बचा ही नहीं है, बस ये आते हैं और इनसे कौन उलझे की उलझन में - पांच-दस रुपये आसानी से लेते हुए आगे बढ़ते जाते हैं.
[......concluding in part 2]