मन के तारों को झंकृत कर,
मुझ में सोये संगीत को
क्यूँ जगाना चाहते हो ?
मुझे -
पहले ये तो जान लेने दो -
मैं कौन हूँ..
मन ? झंकार ? तार ?
संपूर्ण संगीत..? या समग्र आकाश ??
इस प्रकाश की परिधि के बाहर
मैं अपने अवशेषों को देख नहीं पाता..
पर अनभिज्ञ नहीं
ईड़ा-शुषुमना-पिंगला की सूक्ष्म चेतनाओं से...
जो कभी कभी इस देह से परे
कभी कभी चौथे कोण का स्पर्श करती है..
मुझे बताती है -
मेरा होना निरर्थक नहीं है...
मुझे प्रकाश की कुण्डली जलानी है...
उन सूक्ष्म चेतनाओं को जीना है..
गहनतम अन्धकार में
चमकने वाले ये असंख्य तारे -
मेरी चाल को बाधित नहीं कर सकते
क्यूंकि ये मैं हूँ...
मैं..
Tuesday, August 5, 2008
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निरुत्तर कर देने वाली रचनाये हैं आपकी...बहुत सुंदर...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और गहराई से भरी रचनाएं हैं आपकी...निरुत्तर कर देने वाली.
ReplyDeleteआपका हार्दिक धन्यवाद..!!!
ReplyDeleteparanoia well described ..
ReplyDeleteek acchi kriti
Thanks Utpal..
ReplyDeleteSir,
ReplyDeleteI was knowing that you are good writer too besides a Consultant.
Exellent Work.It suits your Personality.