अरसा हुआ कुछ लिखे हुए...घर से चौराहे तक, पान की गुमटी से दफ्तर तक और फिर दफ्तर से वापस घर तक ...तमाम रास्तों में कुछ न कुछ छिटक कर लग ही जाता है कमबख्त...और फिर लगता है की चलो यहीं भड़ास निकाल ली जाये.
बहुत कुछ सुलग गया है इन दिनों...देखें भड़ास निकाल कर कितनी ठंडक मिलती है.